vendredi 20 décembre 2013

चाहत



मैंने तो चाँद माँगा था,
तुमने कहा कि चाँद हमारे घर को जला देगा,
काश तुम चाँद से मिले होते।

काश तुम चाँद से मिले होते,
कुछ बातें होतीं,
तकरारें होतीं,
कुछ तू तू मैं मैं,
खड़ी दीवारें होतीं,
पर बातें तो होतीं!

पर ना जाने  क्यों,
तुम चाँद से बिना मिले ही डर गए,
डरते थे?
कि तुम अकेले न रह जाओ?
या फिर व्याकुल थे,
कि तुमसे बिना पूछे मैं चाँद से कैसे मिल आया?

तुमसे बिना पूछे मैं चाँद से मिल आया,
कुछ पल हंसा, दो पल रोया,
तुम्हे तो मेरी हंसी न दिखी,
बस रोना दिखा?

बस रोना ही दिखा तुम्हें,
पर शायद मन ही मन तुम खुश थे,
कि चाँद का साथ अब न रहेगा।


ख़ुशी? ये कहा तुमने,
ये ख़ुशी किस चिड़िया का नाम है ?
ये पूछा तुमने।
क्या तुम जानते नहीं,
हमारी ऊँचाई कितनी है,
चौड़ाई कितनी है?
यह पूछा तुमने।

ऊँचाई और चौड़ाई कितनी है पूछते हो,
और फिर पूछते हो तुम्हारी हंसी कहाँ गयी?
और कहते हो कि तुम्हारे चुटकुले अब वह मज़ा नहीं देते।

हाँ मेरे चुटकुले अब खो गए,
कितने हसीं थे है ना ?
उनकी याद अभी मुझे नहीं आती।
आती है, कभी कभी,
कभी किसी पन्ने कि गहराई में खोये हुए मुस्कराहट को
ढूंढ लेता हूँ,
पर तुमसे पूछे बिना तो हंस भी नहीं सकता,

थक हार के मैं,
कुछ देर सोना चाहता  हूँ,
क्या अब भी तुमसे पूछना होगा?

-- निशा 

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