कभी आँख टेढ़े, कभी गर्दन टेढ़ी,
कभी बीच बाज़ार में,
लपलपाती ज़बान टेढ़ी,
इस भड़कम भीड़ में,
उनके चुटकुले टेढ़े,
शकल टेढ़े,
नक़ल टेढ़ी।
कभी उचकते भौं,
कभी लचकती कमर,
मतवाले चालों कि नज़र टेढ़ी!
रेशम ज़ुल्फ़ों में छुपी आँखें,
गिरती बिजलियों सी मार टेढ़ी,
चुभते कटाक्षों कि आहट में,
इश्क़ फरमाने कि चाहत टेढ़ी!
कमसिन हसगुल्लों के बीच,
शकल टेढ़े,
नक़ल टेढ़ी।
चाहत और कमसिन हसगुल्ले,
याद करते हैं यह चुटकुले,
टेढ़े वारों से आहत ह्रदय,
कभी डण्डों कि मार,
कभी हाथ कि मार,
और कभी कटु वचन कि मार
बहुत खायी होंगी।
कभी चुटकुलों कि मार खायी है ?
कसम खाता हूँ मैं,
नहीं मारेंगे तुम्हें,
क्योंकि थक चुके हैं,
मेरे बूढ़े चुटकुले।
-- निशा
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