कभी कभार जब मैं अपनी
किताबों के साथ बैठता हूँ,
किसी सुहानी शाम की बहती
हवाओं की याद आती है
याद आती है नमकीन का वो पैकेट
और वो वेटिंग रूम .
याद आतीं हैं
ईर्ष्यापूर्ण निगाहें लोगों की,
और कुछ निगाहों की गुस्ताखियाँ
कहती कुछ भी सिर्फ बातें सुनने को
और फिर वही मेरी जुबां की गुस्ताखियाँ
खाने की टेबल पर
हमारे सरकते हाथ
और फिर उन टकराते
उँगलियों की बदमाशियां
मेरी बातों पर यूँ ही रक्तिम हुए गाल
और फिर गालों को देखकर
यूँ नज़रों की बदमाशियां.
फिर जब बजी सीटी,
और धीमे धीमे सरकने लगी ट्रेन,
उन आँखों से टपकते आंसुओं की बदहवासियाँ
और हाथ से छूटता हाथ,
ऊँगली से छूती ऊँगली,
और फिर बस हिलता हुआ हाथ
और दूर सरकती हुई ट्रेन.
dimanche 26 avril 2009
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