samedi 21 décembre 2013

ज़िन्दगी





चंद फेंके हुए सिक्कों सी
बेहाल सी ज़िन्दगी,
लफ़्ज़ों के तीरों से
घायल सी ज़िन्दगी,
जलकर राख हुए कोयलों पर
धुंआ देती ज़िन्दगी।

धुआं देती गीली ज़िन्दगी,
दुल्हन कि विदाई पे छलकते आंसू
और बिलखते हुए बाप सी ज़िन्दगी।

बिलखते हुए बाप सी ज़िन्दगी,
बज चुकी शहनाई अब अकेली है ज़िन्दगी,
अस्मत कि क्या किस्मत देखो,
तार तार फटी है ज़िन्दगी।

तार तार फटी है ज़िन्दगी,
बेहाल बेबस बेकसक
रह गयी है ज़िन्दगी,

दुल्हन कि विदाई पे छलकते आंसू
और बिलखते हुए बाप सी ज़िन्दगी। 

धोबी घाट पर मैले कपड़ो कि तरह,
पिटी लुटी है ज़िन्दगी,
गरम लपटों कि वार से और
पानी कि बौछार से
काहिल सी है ज़िन्दगी,
और खिंची खिंची
मैले कुचैले नोट सी
फटेहाल सी
सेलोटेप लगी ज़िन्दगी।  

-- निशा

vendredi 20 décembre 2013

चुटकुले





कभी आँख टेढ़े, कभी गर्दन टेढ़ी,
कभी बीच बाज़ार में,
लपलपाती ज़बान टेढ़ी,
इस भड़कम भीड़ में,
उनके चुटकुले टेढ़े,
शकल टेढ़े,
नक़ल टेढ़ी।

कभी उचकते भौं,
कभी लचकती कमर,
मतवाले चालों कि नज़र टेढ़ी!
रेशम ज़ुल्फ़ों में छुपी आँखें,
गिरती बिजलियों सी मार टेढ़ी,
चुभते कटाक्षों कि आहट में,
इश्क़ फरमाने कि चाहत टेढ़ी!
कमसिन हसगुल्लों के बीच,
शकल टेढ़े,
नक़ल टेढ़ी।

चाहत और कमसिन हसगुल्ले,
याद करते हैं यह चुटकुले,
टेढ़े वारों से आहत ह्रदय,

कभी डण्डों कि मार,
कभी हाथ कि मार,
और कभी कटु वचन कि मार
बहुत खायी होंगी।
कभी चुटकुलों कि मार खायी है ?


कसम खाता हूँ मैं,
नहीं मारेंगे तुम्हें,
क्योंकि थक चुके हैं,
मेरे बूढ़े चुटकुले।

-- निशा 

चाहत



मैंने तो चाँद माँगा था,
तुमने कहा कि चाँद हमारे घर को जला देगा,
काश तुम चाँद से मिले होते।

काश तुम चाँद से मिले होते,
कुछ बातें होतीं,
तकरारें होतीं,
कुछ तू तू मैं मैं,
खड़ी दीवारें होतीं,
पर बातें तो होतीं!

पर ना जाने  क्यों,
तुम चाँद से बिना मिले ही डर गए,
डरते थे?
कि तुम अकेले न रह जाओ?
या फिर व्याकुल थे,
कि तुमसे बिना पूछे मैं चाँद से कैसे मिल आया?

तुमसे बिना पूछे मैं चाँद से मिल आया,
कुछ पल हंसा, दो पल रोया,
तुम्हे तो मेरी हंसी न दिखी,
बस रोना दिखा?

बस रोना ही दिखा तुम्हें,
पर शायद मन ही मन तुम खुश थे,
कि चाँद का साथ अब न रहेगा।


ख़ुशी? ये कहा तुमने,
ये ख़ुशी किस चिड़िया का नाम है ?
ये पूछा तुमने।
क्या तुम जानते नहीं,
हमारी ऊँचाई कितनी है,
चौड़ाई कितनी है?
यह पूछा तुमने।

ऊँचाई और चौड़ाई कितनी है पूछते हो,
और फिर पूछते हो तुम्हारी हंसी कहाँ गयी?
और कहते हो कि तुम्हारे चुटकुले अब वह मज़ा नहीं देते।

हाँ मेरे चुटकुले अब खो गए,
कितने हसीं थे है ना ?
उनकी याद अभी मुझे नहीं आती।
आती है, कभी कभी,
कभी किसी पन्ने कि गहराई में खोये हुए मुस्कराहट को
ढूंढ लेता हूँ,
पर तुमसे पूछे बिना तो हंस भी नहीं सकता,

थक हार के मैं,
कुछ देर सोना चाहता  हूँ,
क्या अब भी तुमसे पूछना होगा?

-- निशा