mardi 10 novembre 2009

बंदिनी गुडिया





देखा था मैंने बचपन से
चिडियों को घोंसले बनाते हुए,
और ख़ुशी से चहचहाते आसमान में उड़ते हुए,
कुछ खिलौनों से जब खेलती थी में
यूँ ही बनाती थी मैं अपने घोंसले
घोंसले में रहतीं थी गुडियां
सोतीं थीं, खातीं थीं,
और बस फिर सो जातीं थीं,
पालती थी मैं उन्हें अपने बच्चों की तरह,
और फिर वही हुआ,
मेरी सारी सहेलिओं के खिलौनों की तरह,
मेरे गुडियों की भी शादी हुई.

पहुंची जब किशोरावस्था में
चारों तरफ बदलाव था,
शायद मुझमे भी
शायद इसीलिए घूरती थी कुछ आँखें,
कुछ मेरे घर के लोग भी,
कुछ ने मुझे छूने की कोशिश की,
और कुछ ने पकड़ने की,
मेरे पैर तो मजबूत थे,
खेल समझकर मैं दौड़ जाती थी.
बड़ा रोना आया उस दिन,
किसी दूर रिश्ते के चाचा ने डांटा
और फिर बहलाने के बहाने
अपने हाथों के करिश्मे दिखाने की
कोशिश की.

रखी जब मैंने जवानी की दहलीज पर कदम
हर जगह सिर्फ मुझे पाने का शोर था
मैं बेहया हूँ, बदतमीज़ हूँ
यही मशहूर था.
खुले आसमान को छूने की चाह में
जब मैंने पंख फैलाये थे
निर्लज्ज कहकर सभी ने
मेरी और उंगलियाँ उठाये थे.

फिर मुझे अपनी प्यारी गुडिया समझ,
मेरे माँ बाप ने रचाई मेरी शादी,
कट गए पंख मेरे,
और फिर दिनभर के झगडे,
तनहइयां
और शायद मैं फिर बन गयी थी
वही निर्जीव बचपन की गुडिया,
न जीने की चाह थी न पाने की,
बस, खाती थी, पीती थी और सो जाती थी।

(संभवतः आप इस कविता को पढ़ कर आश्चर्यचकित हो रहे होंगे। परन्तु हमारे इस देश की कई महिलाएं भारतीय परम्परा की रक्षा करने के लिए, एवं अपने माँ-बाप-संतान-परिवार के स्वार्थ के लिए मौन होकर समस्त कष्ट झेलतीं हैं। यह कविता मैं उन महिलाओं को समर्पित करता हूँ।)

2 commentaires:

veerender kumar a dit…

jabardast kavita hai.....yah bhi aur puraani vaali bhi....aapne kabhi bataya nhi ki aap itni achchi hindi likhte hain....

Amar a dit…

Wonderful poem, S. Keep writing.